यह देश, यहां की मिट्टी, यहां के लोग अपने आप में अनगिनत आश्चर्यों से भरे हुए हैं. हजारों साल पहले कही गई बातों, दिए गए उपदेश पीढ़ी दर पीढ़ी से गुजरते हुए आज जन-जन में व्याप्त हो गया है. देश के दर्शनशास्त्रियों और विचारकों को पढ़ते हुए कई बार लगता है इन लोगों ने हजारों साल पहले कही गई बातों को अपने तरीके से उसी बात को लिखा है. अर्थात् मूल शब्द वही हैं लेकिन उसकी व्याख्या अभी के अनुसार की गई है. और वह व्याख्या अतीत की कही गई बातों की पुनरावृति ही है. स्वामी तुलसी दास ने जिस रूप की व्याख्या अपनी हरेक रचना में करते रहे उसी की व्याख्या कबीर दास अलग तरीके से अपनी रचनाओं में करते नजर आते हैं. सुरदास की भी व्याख्या इससे अलग नहीं है.
इसका एक उदाहरण देश के कवि हृदय पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की एक कविता में देख सकते हैं.
उन्होंने अपने देश भारत की वंदना करते हुए जो लिखा, उस कविता को यहां लिख रहा हूं और फिर योगेश्वर श्रीकृष्ण की एक बात को भी लिखूंगा. कबीर दास ने किस तरीके से उस विराट रूप को कहा है वह भी आश्चर्य से भर देने वाला है. चाहे किसी की भी रचना हो, कई बार लगता है कि ये सभी एक ही बात अपने अपने तरीके से कह रहे हैं. पहले भारत भूमि की वंदना में लिखे गए स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की यह कविता...
भारत जमीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
हम जियेंगे तो इसके लिये
मरेंगे तो इसके लिये।
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में उपदेश देते हुए कहा था...
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।
अर्थात्
''हे धनंजय! मुझसे परे अन्य किचिन्मात्र वस्तु नहीं है. यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में मणियों के सदृश मुझमें पिरोया हुआ है.''
किसी कवि की व्याख्या इस देश के लिए, यहां के कण कण के लिए कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण के दिए गए उपदेश की वर्तमान समय में की गई व्याख्या ही तो है. श्रीकृष्ण जैसे कुछ शब्दों में सारी व्यापकता को समाहित कर देते हैं वैसी व्यापकता साधारण मनुष्य में हो भी नहीं सकती. वह ऐसा लिख भी नहीं सकता. 14वींं शताब्दि में जन्में कबीर भी जब कहते हैं तो ऐसा ही कहते हैं. वो भी उस असाधारण मानव की व्याख्या करने में खुद को सक्षम नहीं मानते हैं. उनकी यह पंक्ति देखिए...
सात समुंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ।
धरनी सब कागद करौं, (तऊ) हरि गुन लिखा न जाइ॥
अर्थात्
''यदि मैं इन सातों समंदर को अपनी लेखनी की स्याही की तरह और इस धरती को एक कागज़ की तरह प्रयोग करूं फिर भी श्री हरि के गुणों को लिखा जाना सम्भव नहीं है.''
श्रीमद्भगवद्गीता में जब श्रीकृष्ण कहते हैं कि वही सबकुछ है और उसी में सबकुछ समाया हुआ है तो इसी बात को कबीर अपने तरीके से उस विराट रूप की व्याख्या कर जाते हैं.
इस भूमि की दार्शनिकता भगवान कृष्ण का ही अंश है. यहां की भाषा उनकी भाषा का ही विस्तार है. यहां का प्यार उनके प्यार का ही रूप है. ऐसा कुछ भी नहीं जो उनसे अलग है, उनकी सोच उनके दर्शन से अलग है. रोम-रोम में राम और कण-कण में शंकर की अवधारणा वस्तुत: वही हैं. सबमें और सभी जगह व्याप्त. हजारों साल पहले कहे गए उनके शब्दों का विस्तार इस भूमि के वासियों में विस्तार पा गया है. कण कण में व्याप्त हो गया. हममें आपमें सबमें समा गया.
पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल जी को याद करते हुए उनकी रचना को पढ़ा था और आज योगेश्वर श्रीकृष्ण के उपदेश को पढ़ते हुए दो पंक्ति लिखने का लोभ आ गया. सोचा इसे बहाने कुछ व्यक्तित्व को याद कर लूं जो हमें समय-समय पर राह दिखा जाते हैं. जीवन के तमाम क्षणों में आनंद का स्रोत, उसका कारण और जीवन को सार्थक एवं सामर्थवान बनाने का हौसला दे जाते हैं.
जय श्रीकृष्ण!
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