अपनी अभिव्यक्ति के लिए विचारों की प्लास्टिक सर्जरी करवाने वाले और स्वघोषित प्रतिभा संपन्न जो मुट्ठी में विद्रोह का बीज लिए घूमते रहते हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि प्रत्येक सृजन के लिए विनाश का होना जरूरी नहीं है. दीवार होती आजादी से वो तंग आ चुके हैं लेकिन वो भी एक नई दीवार खड़ी करना चाहते हैं. जाहिर है आजादी की नई दीवार. गुलाम होते ख्यालों के बीच नई किस्म की गुलामी लाना चाहते हैं.
शोर के बीच बसे शहर में जब शांति की जगह मिलने लग जाए तो अटपटा लगता ही है. कार्य की प्रकृति को समझने की जगह कहां बचती है जब आप किसी और रंग में रंगे हों. शांति का भर जाना मुर्दों की पहचान मानने लगे तो फिर जिंदा रहने की शर्त क्या हो, यह सोचना होगा. सवाल करना होगा. पहले खुद से ही. दूसरे तो दूसरे ही होते हैं. पहले के बाद आते हैं. पहले खुद को समझना होगा. इस समझने की प्रक्रिया में यह भी मुमकिन है कि कुछ बूढ़े सवाल मर जाए, कुछ नये सवाल पैदा हों. क्योंकि कुछ सीखने के लिए सवालों का पैदा होना जरूरी है, उसका जिंदा रहना जरूरी है.
हम अक्सर डस्टबीन बनने को तैयार रहते हैं क्योंकि हम ऐसे ही है. अच्छे ख्यालों पर भरोसा हो न हो बुरे पर तो कर ही लेते हैं. फिर कोसने को तैयार रहते हैं बिना चीजों को समझे अपनी संतुष्टि के लिए. खुद की संतुष्टि बड़ी चीज है. लबो की आजादी के बीच पता नहीं, हम यह क्यों नहीं सोच पाते कि ऐसी कितनी परतें हमें खुद में समा लेने के लिए तैयार रहती हैं और हम खुले रहते हैं अपने ही बनाई धारणाओं और विचारों के बंद दरवाजों में. ऐसे में नई चीजें कहां दिखाई देने वाली. क्या यह संभव है जब हम अपने लबो को खोलें तो निकलें कुछ जिंदा सपनें? बंद मुट्ठी को खोले तो गिरे कुछ ऐसे बीज जो फलदार वृक्ष बने?
हालांकि यह सोच जंगल में छोड़ देने वाली एक सड़क जैसी ही है फिर भी उम्मीद बनाएं रखने में क्या बुराई है.
शोर के बीच बसे शहर में जब शांति की जगह मिलने लग जाए तो अटपटा लगता ही है. कार्य की प्रकृति को समझने की जगह कहां बचती है जब आप किसी और रंग में रंगे हों. शांति का भर जाना मुर्दों की पहचान मानने लगे तो फिर जिंदा रहने की शर्त क्या हो, यह सोचना होगा. सवाल करना होगा. पहले खुद से ही. दूसरे तो दूसरे ही होते हैं. पहले के बाद आते हैं. पहले खुद को समझना होगा. इस समझने की प्रक्रिया में यह भी मुमकिन है कि कुछ बूढ़े सवाल मर जाए, कुछ नये सवाल पैदा हों. क्योंकि कुछ सीखने के लिए सवालों का पैदा होना जरूरी है, उसका जिंदा रहना जरूरी है.
हम अक्सर डस्टबीन बनने को तैयार रहते हैं क्योंकि हम ऐसे ही है. अच्छे ख्यालों पर भरोसा हो न हो बुरे पर तो कर ही लेते हैं. फिर कोसने को तैयार रहते हैं बिना चीजों को समझे अपनी संतुष्टि के लिए. खुद की संतुष्टि बड़ी चीज है. लबो की आजादी के बीच पता नहीं, हम यह क्यों नहीं सोच पाते कि ऐसी कितनी परतें हमें खुद में समा लेने के लिए तैयार रहती हैं और हम खुले रहते हैं अपने ही बनाई धारणाओं और विचारों के बंद दरवाजों में. ऐसे में नई चीजें कहां दिखाई देने वाली. क्या यह संभव है जब हम अपने लबो को खोलें तो निकलें कुछ जिंदा सपनें? बंद मुट्ठी को खोले तो गिरे कुछ ऐसे बीज जो फलदार वृक्ष बने?
हालांकि यह सोच जंगल में छोड़ देने वाली एक सड़क जैसी ही है फिर भी उम्मीद बनाएं रखने में क्या बुराई है.
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