देश में (जन)लोकपाल पर बहस छिड़ी हुई है. बॉलीवुड में प्रकाश झा अपनी फिल्म आरक्षण को लेकर चर्चा में हैं तो महंगाई और भ्रष्टाचार के बीच जनता की स्थिति दयनीय बनी हुई है. ढ़ेर सारे मुद्दे और ढ़ेर सारे सवाल सरकार और जनता दोनों के पास है.
खैर सबकी अपनी समस्या और अपना दर्द है. ऐसे में आज काफी समय बाद फिर से गोरख पांडे जी की कुछ कविताओं को पढ़ने का मौका मिला. उनमें से एक कविता को यहां दे रहा हूं, आप भी पढ़ें:
समझदारों का गीत
हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।
हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।
हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।
वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।
-गोरख पांडे
गुरुवार, अगस्त 11, 2011
रविवार, अगस्त 07, 2011
ईमान बेचते चलो, तुम भी महलों में रह लोगे...
देश के दोनों बड़े दल भ्रष्टाचार के सागर में गोते लगा रहे हैं. एक दल को इस बात का गुमान है कि उसे जनता ने सत्ता दिया है शासन करने के लिए. अब जनता को यह हक नहीं बनता है कि वह कुछ कहे. जो जनता कुछ कहना चाहती है उसके लिए नसीहत यह है कि वह पहले जनता के बीच से चुन कर आए. सिर्फ जनता होने से काम नहीं चलेगा. जनता को कुछ भी पूछने या जानने का हक नहीं है. जनता एक बार अपने प्रतिनिधि को निर्वाचित कर दी तो अगले पांच वर्षों तक के लिए वह अपने मुंह पर ताला जड़ ले. अब वह सिर्फ सह सकती है लेकिन न तो सवाल कर सकती है और ना ही आवाज.
दूसरी पार्टी जो विपक्ष में बैठी है उसको इस बात का गुमान है कि सवाल पूछने का हक सिर्फ मेरे पास है. लेकिन मैं अपनी मर्जी से ही कुछ करुंगा. मैं जनता के प्रति जबावदेह नहीं हूं. वैसे जनता मेरा क्या कर लेगी... अगर मैं भ्रष्टाचार के मामले में सत्ता पक्ष का साथ देता हूं तो मुझे भी लाभ मिलेगा.
मेरे विचार से कुछ ऐसा ही खेल खेला जा रहा है संसद में. कांग्रेस कर्नाटक पर चुप रहेगी तो बीजेपी दिल्ली के मसले पर कुछ नहीं बोलेगी. महंगाई से निपटना किसी के लिए आसान काम नहीं है तो दोनों पार्टी इसपर चुप रहेंगे और संसद में भी दोस्ताना बहस करेंगे... भले ही इसका फायदा कालाबाजारी करने वाले ले जाएं. मंत्री एक और बयान देंगे और अगले दो महीने तक महंगाई के नाम पर लूटने की पूरी आजादी मिल जाएगी क्योंकि सरकार जब खुद ही कहेगी कि महंगाई अगले दो महीनें कम नहीं होगी तो चाहे जिस किमत में सामान बेचो कोई क्या कर लेगा.
मीडिया भी अपनी भूमिका को शायद ही ठीक से निभा पा रही है. सांसद तो मीडिया वालों से भी यह कहने से नहीं चुक रहे हैं कि आप अपने काम से काम रखें. वे तो यहां तक नसीहत देने लगे हैं कि आपका काम है मेरे संदेश को जनता तक पहुंचाने का तो सिर्फ वही करें और सवाल पूछना बंद करें. वैसे सांसद महोदय की बातों का कुछ असर होता भी है और कुछ पत्रकार अपना सवाल पूछना भूल जाते हैं. शायद उन्हें इस बात का डर हो जाता होगा कि अगर संबंध खराब हो गए तो अगली बार खबर कैसे मिलेगी.
ऐसे मौके पर महान कवि गोपाल सिंह नेपाली की एक कविता याद आ रही है जो कभी अपने हॉस्टल के दिनों में मैंने पढ़ा था... हालांकि यह कविता 1962 के युद्ध के दौरान लिखी गई थी लेकिन इसकी प्रासंगिकता आज भी है.
मेरा धन है स्वाधीन कलम
राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
रस-गंगा लहरा देती है
मस्ती-ध्वज फहरा देती है
चालीस करोड़ों की भोली
किस्मत पर पहरा देती है
संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
कोई जनता को क्या लूटे
कोई दुखियों पर क्या टूटे
कोई भी लाख प्रचार करे
सच्चा बनकर झूठे-झूठे
अनमोल सत्य का रत्नहार, लाती चोरों से छीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
बस मेरे पास हृदय-भर है
यह भी जग को न्योछावर है
लिखता हूँ तो मेरे आगे
सारा ब्रह्मांड विषय-भर है
रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से
बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से
आदत न रही कुछ लिखने की
निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
तुझ-सा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो
मैं भी महलों में रह लेता
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
दूसरी पार्टी जो विपक्ष में बैठी है उसको इस बात का गुमान है कि सवाल पूछने का हक सिर्फ मेरे पास है. लेकिन मैं अपनी मर्जी से ही कुछ करुंगा. मैं जनता के प्रति जबावदेह नहीं हूं. वैसे जनता मेरा क्या कर लेगी... अगर मैं भ्रष्टाचार के मामले में सत्ता पक्ष का साथ देता हूं तो मुझे भी लाभ मिलेगा.
मेरे विचार से कुछ ऐसा ही खेल खेला जा रहा है संसद में. कांग्रेस कर्नाटक पर चुप रहेगी तो बीजेपी दिल्ली के मसले पर कुछ नहीं बोलेगी. महंगाई से निपटना किसी के लिए आसान काम नहीं है तो दोनों पार्टी इसपर चुप रहेंगे और संसद में भी दोस्ताना बहस करेंगे... भले ही इसका फायदा कालाबाजारी करने वाले ले जाएं. मंत्री एक और बयान देंगे और अगले दो महीने तक महंगाई के नाम पर लूटने की पूरी आजादी मिल जाएगी क्योंकि सरकार जब खुद ही कहेगी कि महंगाई अगले दो महीनें कम नहीं होगी तो चाहे जिस किमत में सामान बेचो कोई क्या कर लेगा.
मीडिया भी अपनी भूमिका को शायद ही ठीक से निभा पा रही है. सांसद तो मीडिया वालों से भी यह कहने से नहीं चुक रहे हैं कि आप अपने काम से काम रखें. वे तो यहां तक नसीहत देने लगे हैं कि आपका काम है मेरे संदेश को जनता तक पहुंचाने का तो सिर्फ वही करें और सवाल पूछना बंद करें. वैसे सांसद महोदय की बातों का कुछ असर होता भी है और कुछ पत्रकार अपना सवाल पूछना भूल जाते हैं. शायद उन्हें इस बात का डर हो जाता होगा कि अगर संबंध खराब हो गए तो अगली बार खबर कैसे मिलेगी.
ऐसे मौके पर महान कवि गोपाल सिंह नेपाली की एक कविता याद आ रही है जो कभी अपने हॉस्टल के दिनों में मैंने पढ़ा था... हालांकि यह कविता 1962 के युद्ध के दौरान लिखी गई थी लेकिन इसकी प्रासंगिकता आज भी है.
मेरा धन है स्वाधीन कलम
राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
रस-गंगा लहरा देती है
मस्ती-ध्वज फहरा देती है
चालीस करोड़ों की भोली
किस्मत पर पहरा देती है
संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
कोई जनता को क्या लूटे
कोई दुखियों पर क्या टूटे
कोई भी लाख प्रचार करे
सच्चा बनकर झूठे-झूठे
अनमोल सत्य का रत्नहार, लाती चोरों से छीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
बस मेरे पास हृदय-भर है
यह भी जग को न्योछावर है
लिखता हूँ तो मेरे आगे
सारा ब्रह्मांड विषय-भर है
रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से
बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से
आदत न रही कुछ लिखने की
निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
तुझ-सा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो
मैं भी महलों में रह लेता
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
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