देश सभी का है। काम करने की आजादी सभी को है। कोई भी कहीं भी काम करे। राज ठाकरे या बाल ठाकरे ही इस देश के या फिर मुंबई के नहीं है। मुंबई उन लोगों का भी है जिन्होंने इसे सजाने सवारने में अपनी उम्र गुजार दी। पिछले दिनों इतिहासकार अमरेश मिश्र का आलेख पढ़ा था। आप भी पढ़े उनके विचार-
आलेख
हाल के दिनों में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने मुंबई में बसे उत्तर भारतीयों को लेकर नाराजगी दिखानी शुरू कर दी है। इस मुद्दे पर छिटपुट हमले हुए हैं और फिलहाल सियासत गर्म है। मुंबई की दो करोड़ आबादी में करीब साठ-सत्तर लाख उत्तर भारतीय हैं। लेकिन इनमें से ज्यादातर को अब भी अहसास नहीं कि मामला क्या है। इन घटनाओं का एक छुपा पहलू यह है कि मराठीवादी सियासत के नाम पर सवर्ण और अवर्ण यानी अगड़े और पिछड़े की राजनीति चल रही है।शिव सेना की मराठीवादी राजनीति एक खास सवर्ण वर्ग के पूर्वाग्रहों से संचालित रही है।
पिछले कुछ अरसे में मराठियों के भीतर अगड़े और पिछड़े का संघर्ष तेज हुआ है। मराठी ओबीसी सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांग रहे हैं। इसी के जवाब में, यानी पिछड़ों की दावेदारी को ध्वस्त करने के लिए इस वक्त मराठी माणूस की एकता का यह नारा लगाया गया है। उत्तर भारतीय तो इस सियासी खेल में सिर्फ एक मोहरा हैं।लेकिन सवर्ण और अवर्ण के बीच बनते-बिगड़ते रिश्तों का इतिहास आज का नहीं है। इसे देश और मुंबई के इतिहास के संदर्भ में देखना होगा, जहां समाज, सियासत और पैसे का भी रोल है। इसी में उत्तर भारतीयों और मराठियों के आपसी रिश्ते की कहानी भी मौजूद है।इतिहास में मुंबई कोई खालिस सवर्ण शहर नहीं रहा है।
मुंबई पहले बंबई था और इसे अंग्रेजों ने बनाया था, यानी इतिहास में इसकी दखल बाद में शुरू हुई। शिवाजी महाराज के जिस आंदोलन से मराठियों को पहचान और सम्मान मिले थे, उसका केन्द्र रायगढ़ था। पेशवाओं की राजधानी पुणे थी। बंबई महज कुछ टापुओं के रूप में मौजूद थी। पहले इन टापुओं पर पुर्तगालियों का कब्जा था। सत्रहवीं सदी में ये अंग्रेजों के हाथ आए। यहां जो कोली समाज बसता था, वह अवर्ण था। उसे न तब और न अब सत्ता का सुख हासिल हुआ।औरंगजेब के समय पुर्तगालियों को बंबई से खदेड़ने की कोशिश हुई। मराठों से भी पुर्तगालियों और अंग्रेजों की जंग हुई। लेकिन पश्चिम भारत में सक्रिय भारतीय ताकतों ने बंबई को कभी अपना सियासी या व्यापारिक केन्द्र नहीं बनाया। मुगल और मराठा काल में भी गुजरात के सूरत जैसे शहरों को यह दर्जा हासिल रहा।
बंबई एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र बन कर उभरा उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दौर में। अंग्रेजों को एक नए पूंजीवादी सेंटर की तलाश थी, जिसे उन्होंने बंबई में आकार दिया। अंग्रेज उस समय भारत के उद्योगों का नाश कर रहे थे। उनकी मुख्य गतिविधि थी भारत से कच्चा माल एक्सपोर्ट करना और इंग्लैंड से तैयार माल इम्पोर्ट करना।
गुजरात के पोर्ट अपनी मराठा-मुगल संस्कृति के चलते इस मकसद में पूरी तरह सहायक नहीं हो सकते ठेमुन्बी का इस्तेमाल उस अफीम व्यापार के लिए भी हो रहा था, जिसके तहत चीनियों से माल लेकर उन्हें अफीम दी जाती थी। इस व्यापार में अंग्रेजों के मददगार थे मुंबई के पारसी और दूसरे धनी लोग।
मुगलकाल में पारसी पूंजीपतियों का नाम कम सुनाई पड़ता था। उस वक्त गुजराती पूंजीपति ही हावी थे। लेकिन अफीम व्यापार में पारसियों के रोल ने 1857 के आसपास उन्हें बंबई में सबसे ताकतवर बना दिया। जगन्नाथ शंकरसेठ को छोड़ कर कोई भी मराठी इन पारसियों की बराबरी नहीं कर सकता था। पारसियों के बाद गुजरातियों के पास ही दौलत थी।मुंबई में उत्तर भारतीयों का आना 1857 के आसपास ही शुरू हुआ। सन सत्तावन की क्रांति के दौरान जहां शंकर सेठ जैसे लोगों को गिरफ्तार कर यातनाएं दी गईं, वहीं पारसियों को वफादारी का इनाम मिला।
पूरे महाराष्ट्र में सत्तावन की जंग जोरदार तरीके से चली, लेकिन इसमें ज्यादातर हिस्सेदारी ओबीसी कोली, महार और भील समुदायों ने ही की। कुछ जगह चितपावन ब्राह्माण भी लड़े, लेकिन बाल ठाकरे जिस जाति से आते हैं, वह इस जंग से अलग ही रही। कुल मिलाकर पिछड़ी जातियों ने ही अंग्रेजों से लोहा लिया। यह बात बाबासाहेब आंबेडकर ने 21 अक्टूबर 1951 को लुधियाना में दिए गए अपने भाषण में मानी थी।सन सत्तावन की क्रांति में बंगाल आर्मी की रीढ़ थे उत्तर प्रदेश और बिहार के हिंदू और मुस्लिम पूरबिए। वही कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और मणिपुर से महाराष्ट्र तक राष्ट्रीयता की भावना से लड़े।
पूरे महाराष्ट्र में पिछड़ी जातियों ने उत्तर भारतीयों के साथ मिलकर मोर्चा खोला था।जब 1857 के बाद बंबई में औद्योगीकरण की शुरुआत हुई, तो उत्तर भारतीय कामगार उसकी वर्क फोर्स का हिस्सा बन गए। लेकिन बहुमत अवर्ण मराठियों का ही रहा। इनमें से ज्यादातर मराठवाड़ा और उत्तर महाराष्ट्र से आए थे। बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में जब आजादी का आंदोलन नया मोड़ ले रहा था, उसी समय से ओबीसी मराठी और उत्तर भारतीय कामगार एक साझा ताकत बनकर उभरने लगे थे। बालगंगाधर तिलक की गिरफ्तारी के बाद जब बंबई में हड़ताल हुई, तो एक नई ताकत का जन्म हुआ। इस ताकत ने आजादी की लड़ाई में कांग्रेस और कम्युनिस्टों का साथ दिया।
आजादी के बाद यह कम्युनिस्टों की रीढ़ बनी रही। यही अवर्ण समुदाय था, जिसने बंबई को मुंबई बनाया। इससे भी पहले गिरगांव जैसे इलाकों में एक साझा मराठी-उत्तर भारतीय संस्कृति परवान चढ़ी।1960 में कांग्रेस की मदद से शिवसेना का उभार होने लगा। उस वक्त कांग्रेस सवर्ण मराठी लीडरशिप के हाथों में थी। अवर्ण मराठियों को कम्युनिस्टों से अलग करने के लिए शिवसेना को आगे बढ़ाया गया। दत्ता सामंत की हड़ताल शायद अवर्ण मराठियों के लिए सबसे गौरवशाली दौर था। लेकिन इसी हड़ताल के दौरान पारसी पूंजीपतियों और सवर्ण मराठियों के बीच वह गठजोड़ उभरा, जिसने बंबई का चरित्र बदल कर रख दिया।
बंबई मैन्युफैक्चरिंग के सेंटर से बदलकर फाइनैंस और जायदाद के कारोबार का सेंटर बन गई। सवर्ण मराठी सामंतशाही ने धीरे-धीरे सवर्ण मध्यवर्ग को भी खुद से अलग कर दिया।मराठीवाद का नारा देने वाले लोग इसी सामंतशाही का हिस्सा हैं। बंबई के मुंबई बनने के बाद नब्बे के दशक में उसके चरित्र में और भी बड़े बदलाव आने लगे। अवर्ण मराठियों की ताकत टूट चुकी थी। उसी वक्त नए पेशों में (जिसे सर्विस सेक्टर कहा जा सकता है) उत्तर भारतीयों का दबदबा बढ़ने लगा। इसमें उत्तर भारत की कमजोर इकॉनमी का रोल उतना बड़ा नहीं था, जितना कि मुंबई में पैदा हो रही नई डिमांड का।
सर्विस सेक्टर को ऐसे लोग चाहिए थे, जो महज कामगार न हों, थोड़ा पढ़े-लिखे भी हों।पारसी पूंजीपतियों से मिलकर सवर्ण मराठियों ने पहले अवर्ण मराठियों की ताकत तोड़ी, फिर जब उत्तर भारतीय खुद को साबित करने लगे, तो यह नया मराठीवाद खड़ा कर दिया गया। आज के दौर में यह पिछड़ा सोच है। इस झगड़े से बहुसंख्य पिछड़े मराठियों को कोई लेना-देना भी नहीं है। इसलिए आज एक बार फिर उत्तर भारतीयों, पिछड़े मराठियों और दलितों के साझा मोर्चे की मुंबई को जरूरत है।
अमरेश मिश्र इतिहासकार हैं जो लम्बे समय तक सामाजिक-राजनैतिक आंदोलन से भी जुड़े रहे हैं..
मंगलवार, मार्च 18, 2008
शनिवार, मार्च 15, 2008
जानकर बोलें तो बेहतर हो.....
दो शब्द
जनप्रतिनिधियों के लिए यही बेहतर है कि वह जो भी बोले सोच समझ कर बोले। आप अगर सदन को गलत जानकारी देते हैं तो इसका यह अर्थ हुआ कि आप देश की जनता को गुमराह कर रहे हैं। ऐसे ही एक बयान पर नवभारत टाइम्स ने एक संपादकीय छपी है जिसे पढ़ा जाना बेहतर हो सकता है।
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जानकर बोलें तो बेहतर हो.....
शायद ही कोई हिंदुस्तानी हो, जिसे यह सुनना अच्छा न लगे कि भारतीय तो पूरी दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं। यदि यह बात अधिकृत व्यक्तियों द्वारा संवैधानिक मंच से की जाए तो उसमें शक करने की भी कोई वजह नहीं बचती। पिछले दिनों केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री की तरफ से संसद में यह बयान आया कि अमेरिका में 38 फीसदी डॉक्टर भारतीय हैं और नासा तथा माइक्रोसॉफ्ट में एक तिहाई से ज्यादा कर्मचारी भारतीय हैं। स्वाभाविक है कि ऐसी जानकारी पर मेजें भी थपथपाई जाएंगी। पर बाद में पता चला कि मंत्री महोदया की जानकारी का स्रोत इंटरनेट से मिले कुछ आंकड़े हैं, जो काफी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए गए हैं और उनका कोई ठोस आधार या कायदे का कोई सर्वे नहीं है। बल्कि उन दावों का आधार इंटरनेट पर कई वर्षों से चल रही ऐसी चिट्ठी-पत्री है, जो असल में स्पैम है। संसद में मंत्री के बयान का अर्थ है कि उसमें सच्चाई है। जाहिर है इस छिछली जानकारी से न सिर्फ संबद्ध मंत्री की, बल्कि सदन की भी भद्द पिटती है। इस पर तो विशेषाधिकार हनन का मामला हो सकता है। लेकिन इससे हमारे मंत्रियों और मंत्रालयों के अधिकारियों के काम करने की शैली का भी पता चलता है। क्या पता इस तरह वे कितनी योजनाओं के बारे में झूठे-सच्चे आंकड़े पेश करते हों। संभवत: यह भी एक बड़ी वजह है कि देश की आम जनता के लिए चलाए जा रहे अधिकांश विकास कार्यक्रमों से कुछ ठोस हासिल नहीं हो रहा है। जहां तक नासा में काम करने वाले भारतीयों की बात है, तो खुद नासा के मुताबिक यह प्रतिशत चार से पांच के बीच है। अमेरिका में काम कर रहे हिंदुस्तानी डॉक्टर भी ज्यादा से ज्यादा दस फीसदी हैं। हो सकता है कि ऐसे आंकड़ों को गौरव का विषय मानकर मसले को ज्यादा तूल नहीं देने की बात कुछ लोग कहें, पर क्या यह नहीं देखा जाना चाहिए कि इससे कितना नुकसान हो सकता है। मुमकिन है कि अमेरिका में चिकित्सा और आईटी से लेकर उद्यमशीलता तक के क्षेत्र में हिंदुस्तानी सबसे सफल कौम हों, पर ऐसे दावे स्थानीय आबादी को उनके खिलाफ कर सकते हैं। जानकारी के स्रोत के रूप में इंटरनेट के इस्तेमाल में खराबी नहीं है, पर यदि वाहवाही लूटने के लिए वहाँ से आप कचरा उठाते हैं, तो आप नई टेक्नॉलजी की चकाचौंध से अपने देशवासियों को भरमाना चाहते हैं। भारतीयों की उपलब्धियां गिनाना चाहते हों, तो उसके लिए होमवर्क कीजिए, जंक मेल देखकर पीठ थपथपाना मंत्री की गरिमा के अनुरूप नहीं है। और फिर महान दिखने की ऐसी जल्दी क्या है?
जनप्रतिनिधियों के लिए यही बेहतर है कि वह जो भी बोले सोच समझ कर बोले। आप अगर सदन को गलत जानकारी देते हैं तो इसका यह अर्थ हुआ कि आप देश की जनता को गुमराह कर रहे हैं। ऐसे ही एक बयान पर नवभारत टाइम्स ने एक संपादकीय छपी है जिसे पढ़ा जाना बेहतर हो सकता है।
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जानकर बोलें तो बेहतर हो.....
शायद ही कोई हिंदुस्तानी हो, जिसे यह सुनना अच्छा न लगे कि भारतीय तो पूरी दुनिया में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं। यदि यह बात अधिकृत व्यक्तियों द्वारा संवैधानिक मंच से की जाए तो उसमें शक करने की भी कोई वजह नहीं बचती। पिछले दिनों केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री की तरफ से संसद में यह बयान आया कि अमेरिका में 38 फीसदी डॉक्टर भारतीय हैं और नासा तथा माइक्रोसॉफ्ट में एक तिहाई से ज्यादा कर्मचारी भारतीय हैं। स्वाभाविक है कि ऐसी जानकारी पर मेजें भी थपथपाई जाएंगी। पर बाद में पता चला कि मंत्री महोदया की जानकारी का स्रोत इंटरनेट से मिले कुछ आंकड़े हैं, जो काफी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किए गए हैं और उनका कोई ठोस आधार या कायदे का कोई सर्वे नहीं है। बल्कि उन दावों का आधार इंटरनेट पर कई वर्षों से चल रही ऐसी चिट्ठी-पत्री है, जो असल में स्पैम है। संसद में मंत्री के बयान का अर्थ है कि उसमें सच्चाई है। जाहिर है इस छिछली जानकारी से न सिर्फ संबद्ध मंत्री की, बल्कि सदन की भी भद्द पिटती है। इस पर तो विशेषाधिकार हनन का मामला हो सकता है। लेकिन इससे हमारे मंत्रियों और मंत्रालयों के अधिकारियों के काम करने की शैली का भी पता चलता है। क्या पता इस तरह वे कितनी योजनाओं के बारे में झूठे-सच्चे आंकड़े पेश करते हों। संभवत: यह भी एक बड़ी वजह है कि देश की आम जनता के लिए चलाए जा रहे अधिकांश विकास कार्यक्रमों से कुछ ठोस हासिल नहीं हो रहा है। जहां तक नासा में काम करने वाले भारतीयों की बात है, तो खुद नासा के मुताबिक यह प्रतिशत चार से पांच के बीच है। अमेरिका में काम कर रहे हिंदुस्तानी डॉक्टर भी ज्यादा से ज्यादा दस फीसदी हैं। हो सकता है कि ऐसे आंकड़ों को गौरव का विषय मानकर मसले को ज्यादा तूल नहीं देने की बात कुछ लोग कहें, पर क्या यह नहीं देखा जाना चाहिए कि इससे कितना नुकसान हो सकता है। मुमकिन है कि अमेरिका में चिकित्सा और आईटी से लेकर उद्यमशीलता तक के क्षेत्र में हिंदुस्तानी सबसे सफल कौम हों, पर ऐसे दावे स्थानीय आबादी को उनके खिलाफ कर सकते हैं। जानकारी के स्रोत के रूप में इंटरनेट के इस्तेमाल में खराबी नहीं है, पर यदि वाहवाही लूटने के लिए वहाँ से आप कचरा उठाते हैं, तो आप नई टेक्नॉलजी की चकाचौंध से अपने देशवासियों को भरमाना चाहते हैं। भारतीयों की उपलब्धियां गिनाना चाहते हों, तो उसके लिए होमवर्क कीजिए, जंक मेल देखकर पीठ थपथपाना मंत्री की गरिमा के अनुरूप नहीं है। और फिर महान दिखने की ऐसी जल्दी क्या है?
रविवार, जनवरी 06, 2008
यह कैसा फरमान है
दो शब्द
यह कैसा फरमान है जो देश की जनता को अपने ही देश में बेगाने होने का एहसास कराएगा। मोटर कानून के तहत किसी भी राज्य का ड्राईविंग लाइसेंस किसी भी राज्य में मान्य है लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं होगा। क्या दिल्ली अलग देश है..... अगर प्रत्येक राज्य इस प्रकार का कानून बनाने लगे तो देश का क्या होगा...
दैनिक जागरण ने इस मसले पर बहुत बेहतर तरीके से सवाल उठाया है। यहां प्रस्तुत है वह आलेख-
एक नेक इरादा किस तरह तुगलकी आदेश में तब्दील हो जाता है, इसे दिल्ली के उप राज्यपाल के उस निर्णय से समझा जा सकता है जिसके तहत 15 जनवरी से देश की राजधानी में पहचान पत्र अनिवार्य किया जा रहा है। क्या उप राज्यपाल यह मान रहे हैं कि दिल्ली में रहने और यहां आने वाले लोग पहचान पत्र से लैस हैं-और वह भी फोटोयुक्त पहचान पत्र से? आखिर वह इस सामान्य से तथ्य से क्यों नहीं अवगत कि देश के करोड़ों लोगों की तरह दिल्ली में रहने वाले लाखों लोगों के पास भी कोई पहचान पत्र नहीं? इनमें से बहुत तो ऐसे हैं जो आसानी से पहचान पत्र हासिल भी नहीं कर सकते-और कम से कम महज दस दिन में तो कदापि नहीं। वैसे भी दिल्ली सरकार ने ऐसा कुछ नहीं कहा है कि जिनके पास पहचान पत्र नहीं हैं वे इस-इस तरह से अपनी शिनाख्त का दस्तावेज हासिल कर लें। पहचान पत्र की अनिवार्यता का सारा बोझ आम जनता के कंधों पर डालना तो अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना है। किसी भी सरकार के लिए यह उचित नहीं कि वह अपनी जिम्मेदारी जनता के मत्थे मढ़ दे। यदि दिल्ली और शेष देश में बहुत से लोगों के पास पहचान पत्र नहीं तो इसके लिए सरकारें उत्तरदायी हैं। यह एक विडंबना है कि देश के सभी लोगों के पास न तो मतदाता पहचान पत्र हैं और न ही अन्य कोई ऐसा प्रामाणिक दस्तावेज जिससे वे आसानी से खुद को भारत का नागरिक सिद्ध कर सकें।यद्यपि सभी को मतदाता पहचान पत्र से लैस करने की कवायद में अरबों रुपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन लक्ष्य अभी भी दूर है। क्या इसके लिए जनता को दोष दिया जा सकता है? क्या यह बेहतर नहीं होता कि दिल्ली में पहचान पत्र को लगभग तत्काल प्रभाव से अनिवार्य करने के बजाय लोगों को थोड़ी मोहलत दी जाती? इस निर्णय को चरणबद्ध ढंग से भी लागू किया जा सकता था और प्रारंभ में केवल वाहनों का प्रयोग करने वालों के लिए पहचान पत्र अनिवार्य किया जाता।
देश के सभी नागरिकों को प्रामाणिक पहचान पत्र से लैस करने की एक पहल राजग शासन के जमाने में शुरू हुई थी, लेकिन आज उसके बारे में कोई जानकारी देने वाला नहीं। बेहतर हो कि केंद्र एवं राज्य सरकारें ऐसी कोई व्यवस्था करें जिससे देश का हर नागरिक विश्वसनीय पहचान पत्र का धारक बन सके। इससे सुरक्षा संबंधी खतरों को कम करने में मदद मिलने के साथ ही अन्य अनेक समस्याओं का समाधान भी हो सकेगा। चूंकि विश्व के अनेक देश अपने नागरिकों को ऐसे पहचान पत्र प्रदान कर चुके हैं इसलिए भारत को भी ऐसा करना चाहिए। यह समय की मांग भी है और एक जरूरत भी। इस जरूरत को पूरा करने के लिए चुनाव आयोग का भी सहयोग लिया जा सकता है। दिल्ली के उप राज्यपाल ने पहचान पत्रों की जो आवश्यकता महसूस की उसमें कुछ भी अनुचित नहीं। जो राजनीतिक दल उनके निर्णय की वापसी की मांग कर रहे हैं उन्हें ऐसे उपाय सुझाना चाहिए जिससे सभी नागरिक भरोसेमंद पहचान पत्र प्राप्त कर सकें ताकि घुसपैठियों, आतंकियों और अन्य अवांछित तत्वों से छुटकारा मिल सके। अच्छा होगा कि पहचान पत्र के सवाल पर गंभीरतापूर्वक विचार हो, जिससे उनका सही तरह से इस्तेमाल हो सके और उन खतरों को दूर किया जा सके जिनसे बचने का इरादा दिल्ली सरकार के निर्णय में निहित है।
यह कैसा फरमान है जो देश की जनता को अपने ही देश में बेगाने होने का एहसास कराएगा। मोटर कानून के तहत किसी भी राज्य का ड्राईविंग लाइसेंस किसी भी राज्य में मान्य है लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं होगा। क्या दिल्ली अलग देश है..... अगर प्रत्येक राज्य इस प्रकार का कानून बनाने लगे तो देश का क्या होगा...
दैनिक जागरण ने इस मसले पर बहुत बेहतर तरीके से सवाल उठाया है। यहां प्रस्तुत है वह आलेख-
एक नेक इरादा किस तरह तुगलकी आदेश में तब्दील हो जाता है, इसे दिल्ली के उप राज्यपाल के उस निर्णय से समझा जा सकता है जिसके तहत 15 जनवरी से देश की राजधानी में पहचान पत्र अनिवार्य किया जा रहा है। क्या उप राज्यपाल यह मान रहे हैं कि दिल्ली में रहने और यहां आने वाले लोग पहचान पत्र से लैस हैं-और वह भी फोटोयुक्त पहचान पत्र से? आखिर वह इस सामान्य से तथ्य से क्यों नहीं अवगत कि देश के करोड़ों लोगों की तरह दिल्ली में रहने वाले लाखों लोगों के पास भी कोई पहचान पत्र नहीं? इनमें से बहुत तो ऐसे हैं जो आसानी से पहचान पत्र हासिल भी नहीं कर सकते-और कम से कम महज दस दिन में तो कदापि नहीं। वैसे भी दिल्ली सरकार ने ऐसा कुछ नहीं कहा है कि जिनके पास पहचान पत्र नहीं हैं वे इस-इस तरह से अपनी शिनाख्त का दस्तावेज हासिल कर लें। पहचान पत्र की अनिवार्यता का सारा बोझ आम जनता के कंधों पर डालना तो अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना है। किसी भी सरकार के लिए यह उचित नहीं कि वह अपनी जिम्मेदारी जनता के मत्थे मढ़ दे। यदि दिल्ली और शेष देश में बहुत से लोगों के पास पहचान पत्र नहीं तो इसके लिए सरकारें उत्तरदायी हैं। यह एक विडंबना है कि देश के सभी लोगों के पास न तो मतदाता पहचान पत्र हैं और न ही अन्य कोई ऐसा प्रामाणिक दस्तावेज जिससे वे आसानी से खुद को भारत का नागरिक सिद्ध कर सकें।यद्यपि सभी को मतदाता पहचान पत्र से लैस करने की कवायद में अरबों रुपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन लक्ष्य अभी भी दूर है। क्या इसके लिए जनता को दोष दिया जा सकता है? क्या यह बेहतर नहीं होता कि दिल्ली में पहचान पत्र को लगभग तत्काल प्रभाव से अनिवार्य करने के बजाय लोगों को थोड़ी मोहलत दी जाती? इस निर्णय को चरणबद्ध ढंग से भी लागू किया जा सकता था और प्रारंभ में केवल वाहनों का प्रयोग करने वालों के लिए पहचान पत्र अनिवार्य किया जाता।
देश के सभी नागरिकों को प्रामाणिक पहचान पत्र से लैस करने की एक पहल राजग शासन के जमाने में शुरू हुई थी, लेकिन आज उसके बारे में कोई जानकारी देने वाला नहीं। बेहतर हो कि केंद्र एवं राज्य सरकारें ऐसी कोई व्यवस्था करें जिससे देश का हर नागरिक विश्वसनीय पहचान पत्र का धारक बन सके। इससे सुरक्षा संबंधी खतरों को कम करने में मदद मिलने के साथ ही अन्य अनेक समस्याओं का समाधान भी हो सकेगा। चूंकि विश्व के अनेक देश अपने नागरिकों को ऐसे पहचान पत्र प्रदान कर चुके हैं इसलिए भारत को भी ऐसा करना चाहिए। यह समय की मांग भी है और एक जरूरत भी। इस जरूरत को पूरा करने के लिए चुनाव आयोग का भी सहयोग लिया जा सकता है। दिल्ली के उप राज्यपाल ने पहचान पत्रों की जो आवश्यकता महसूस की उसमें कुछ भी अनुचित नहीं। जो राजनीतिक दल उनके निर्णय की वापसी की मांग कर रहे हैं उन्हें ऐसे उपाय सुझाना चाहिए जिससे सभी नागरिक भरोसेमंद पहचान पत्र प्राप्त कर सकें ताकि घुसपैठियों, आतंकियों और अन्य अवांछित तत्वों से छुटकारा मिल सके। अच्छा होगा कि पहचान पत्र के सवाल पर गंभीरतापूर्वक विचार हो, जिससे उनका सही तरह से इस्तेमाल हो सके और उन खतरों को दूर किया जा सके जिनसे बचने का इरादा दिल्ली सरकार के निर्णय में निहित है।
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